Sunday, March 27, 2011

और मैं निरुत्तर हूँ...

Bal Swarup "Rahi" used to be my "resident poet" - someone with whom I could resonate, and who would articulate what I could not then (that's back in the early '70s)... ...some of his verses I (re-)discovered today:

कौफी के प्याले में, कब तलक डुबोओगे,
अन्तरंग कडुआपन,
मुझसे यूं पुछा है उकताई शाम नें,
और मैं निरुत्तर हूँ...

***

धुंए और धुंध भरे इस युग में,
आओ, हम अर्थ की तलाश करें,
चाहे वह व्यर्थ हो...

***

शब्द जो तिरिस्कृत हैं,
अर्थ जो बहिष्कृत हैं,
लाओ, हम उन्हें नए गीतों में ढाल दें...

1 comment:

Ajju said...

beautiful..